वनराज (खण्ड-दो) (Vanraj Part – 2)

350 298
Language Hindi
Binding Paperback
Pages 238
ISBN-13 978-9394369184
Book Dimensions 5.50 x 8.50 in
Edition 1st
Publishing Year 2022
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Category:
Author: Ramanuj Anuj

वह खड़े-खड़े ही आसपास के वातावरण को देखकर प्रसन्न होता रहा। पूर्व दिशा में फैली अरुणिमा को देखकर उसने तारा को जगाना उचित समझा। वह निकट जाकर ओढ़े हुये आवरण को हटा दिया और तारा की खुली हुई देह को देखने लगा। यद्यपि वनराज की के लिए कुछ भी अदृश्य में नहीं है लेकिन वह किसी की तरफ भर नजर देखता ही नहीं, ऐसी उसकी आदत है। हमेशा साथ रहने वाली तारा की खुली देह को नहाते हुए और कपड़े बदलते हुए कई दफा देख चुका है, परन्तु देखते हुए भी बहुत कुछ अनदेखा रह जाता था। आज वह सम्पूर्णता के साथ नारी देह को देखना चाह रहा था। आज उसकी नजरें तारा की खुली देह से चिपक-सी गईं थी। तारा नींद और जागरण के संधिकाल से गुजर रही थी। कमल की पंखुड़ियों के मानिंद रंग वाले ओंठ द्वय मुस्कुराहट की प्रतीति में थे। वनराज ने उसकी देह को वस्त्रों के आवरण से पूर्णरूपेण मुक्त कर दिया। और लम्बी जीभ निकालकर अंगप्रत्यंग को चाटने लगा। तारा की नींद खुल चुकी थी किन्तु जागरण को प्रकट न करते हुए शांत भाव से पड़ी परमानन्द की अनुभूति करती रही। वह तारा को कंधे पर उठाकर सुबह की क्रियाओं हेतु झरने तरफ जाने को उद्यत हुआ ही था कि तारा बोल पड़ी—‘मैं अब चल सकती हूँ, थकान का नामोनिशान नहीं है। मुझे नीचे उतारो, वस्त्र पहनकर जलाशय तरफ जाना चाहिए।’ वनराज ने उसे कंधे से नीचे उतार दिया। तब तारा ने पूछा, ‘तुम ऐसा क्यों कर रहे थे?’ वनराज, ‘अघोरी साधुओं के डेरा तक आने-जाने में तुम्हें चोट लगी है। उस पीड़ा को अपने हिस्से में करने के लिए मुझे तुम्हारे वस्त्र उतार कर जिह्वा की छुअन देनी पड़ी।’ तारा, ‘चोट मस्तक में लगी है, जो बिन प्रयास सहजता से देखी जा सकती है। तुम तो अन्यत्र देख रहे थे। इसका आशय क्या समझूँ?’ वनराज, ‘चोट कहीं भी लगे, कैसी भी लगे, पीड़ा का प्रभाव सम्पूर्ण शरीर में पड़ता है।’

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