प्रकृति की भाँति स्त्री भी सदियों से शोषित व पीड़ित होती रही है। हालाँकि आजकल स्थिति पहले से सुधरी है परंतु फिर भी यह आशानुकूल नहीं है। स्त्रियों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने की, संघर्ष करने की अद्भुत और असीमित क्षमता निहित होती है तथा स्त्री के लिए उसका स्वाभिमान सर्वोपरि होता है। उसकी इसी विलक्षण प्रतिभा और क्षमता को पुरुष समाज स्वीकार नहीं कर पाता क्योंकि स्त्री का यह गुण पुरुष के सर्वशक्तिमान होने के अहंकार को चुनौती देता हुआ प्रतीत होता है। इसी कारण वह स्त्री को सीमाओं में बाँधकर रखना चाहता है परंतु स्त्री अपनी लाचारी, बेबसी और तड़प को नजरअंदाज कर अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरी निष्ठा से निभाने के साथ-साथ अपनी महत्वाकांक्षाओं और सपनों को पूरा करने की कोशिश में जुटी रहती है। मेरी रचनाओं में मैंने स्त्री मन के इसी उतार-चढ़ाव को दर्शाने की कोशिश की है।
Prakriti Aur Nari (kavya Sangrah) प्रकृति और नारी (काव्य संग्रह)
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