वो अपने जजबात और एह्सासात की शिद्धत से मजबूर होकर कभी –कभी शेर जरूर खे लेते हैं , लेकिन अपने फेन – ऐ – शेर से उनको ज्यादा दिलचस्पी नहीं है | शायद उनके पेशे की सरगर्मियां उसकी फुर्सत ही नहीं देती होगी , इसलिए जब पहली मर्तबा उनसे उनका कलाम सुना तो मैं ये देखकर हैरान रह गया की वो अपने फन को इस तरह छुपाते हैं, जिस तरह कुछ बड़े लोग ऐब पर परदा डालते हैं | लेकिन मैंने उनका थोडा –सा कलाम सुनकर यह तय कर लिया है की अब मैं लिखूँ, एक फाटक की तरह उनके फेन पर पड़े हुए परदे उठाके छोडूं | और मैं उनसे जिद करने लगा की गोयल साहब अपना कलाम छपवाएँ | उनके दोस्त और भाई ने भी मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाई और उनका कलाम छपवाने पर इतना मजबूर किया कि आज ये मजमूआ आपके हाथो में है | इसको छपना चाहिए था या नहीं | इसको सेजने के लिए हमे यह देखना पड़ेगा कि अदबी हल्कों में इसकी पजिरायी कैसे होती है | अब गोयल साहब और आपके दरमियान में ज्यादा देर नहीं रहना चाहता कैफ़ी आज़मी
Sisaktey Arman (सिसकते अरमान)
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Binding | Paperback |
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